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1857 की क्रांति का व्यापक इतिहास - Brief history of revolt of 1857 IN

         आज आपको 1857 की क्रांति का व्यापक इतिहास आज इस आर्टिकल के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है। भारत के उत्तरी और मध्य क्षेत्रों में प्रमुख रूप से फैले इस आंदोलन ने किस प्रकार से अंग्रेजी सरकार की चूलें हिला कर रख दीं आज इस आर्टिकल के माध्यम से आपको पता चलेगा। यह आर्टिकल यूपीएससी की तैयारी कर रहे युवाओं सहित सभी एकदिवसीय परीक्षाओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

आज आपको 1857 की क्रांति को पढ़ने के बाद यह पता चलेगा कि - 

  • 1857 क्रांति का दूसरा नाम क्या है?
  •  1857 की क्रांति का जनक कौन था?
  • 1857 के विद्रोह के नेता कौन थे?
  • भारत के प्रथम क्रांतिकारी कौन थे?
  • 1857 की क्रांति के समय भारत में किसका शासन था?
  • 1857 की क्रांति कब समाप्त हुआ?
  • 1857 की क्रांति के क्या परिणाम हुए?
  • 1857 का विद्रोह स्वतंत्रता का पहला युद्ध क्यों था?
  • 1857 की क्रांति की क्या विशेषताएं थी?
  • भारत में 1857 की क्रांति की शुरुआत कब हुई?
  • पील आयोग क्या है 1857?
  • 1857 में क्या हुआ था?
  • 1857 के युद्ध की मुख्य घटनाएं क्या थीं?
  • 1857 का विद्रोह कैसे समाप्त हुआ?
  • 1857 में भारत क्यों विफल हुआ?
  • 1857 के बाद दिल्ली का क्या हुआ?
  • भारत में 1857 का क्या महत्व है?
  • 1857 की क्रांति के बाद भारत में क्या बदलाव हुए?

 

1857 ई० की क्रांति को निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है-

(1) स्वरूप (Structure)

(2) कारण (Reasons)

(3) प्रारम्भ (commencement)

(4) विद्रोह का प्रसार एवं पतन ( Spread and fall of the rebellion)

(5) असफलता के कारण(Reasons for failure)

(6) महत्व(Significance)

(7) परिणाम(Result)

1857 की क्रांति -Revolt of 1857 



स्वरूप

भारत में ब्रितानी सत्ता की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने की पूर्व सन्ध्या पर भारतीय सैनिकों द्वारा जो विद्रोह किया गया, उसकी प्रकृति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे सिपाही विद्रोह, सामन्तवादी प्रतिक्रिया, हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र आदि की संज्ञा दी है, जबकि अधिकांश भारतीय इतिहासकार इसे राष्ट्रीय आन्दोलन स्वीकार करते हैं जो भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ा गया।.


विदेशी इतिहासकारों के मत - 

लारेन्स, सीले, ट्रेवेलियन, मालसन, टी० आर० होम्स आदि अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार

यह एक "सैनिक विद्रोह" था।

कुछ भारतीयों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाया है, जिसमें दुर्गादास बन्दोपाध्याय और सर सैय्यद अहमद खाँ प्रमुख थे।

सर सैय्यद अहमद खाँ जो विद्रोह के समय बिजनौर के सदर अमीन पद पर थे, ने अपनी पुस्तक “An Essay on the Cause of the Indian revolt (1860) में इसे सैनिक विद्रोह माना।


परन्तु, यह व्याख्या ठीक नहीं है। यद्यपि यह विद्रोह सैनिक विद्रोह के रूप में प्रारम्भ हुआ, परन्तु बाद में अधिकांश स्थानों पर जनता ने भी इसमें भाग लिया। 1858-59 ई० के अभियोगों (Trials) में हजारों असैनिकों को भी दण्डित किया गया था।


  • एल० ई० आर० रीज के अनुसार - धर्मान्धों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध था
  • टी० आर० होम्स के अनुसार - बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध कहा
  • सर जेम्स आउटम और डब्ल्यू० टेलर के अनुसार - हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र का परिणाम


"ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में भी इस विद्रोह को सिपाही विद्रोह घोषित किया गया लेकिन, ब्रिटेन के प्रसिद्ध नेता बेंजामिन डिजरायली जो रूढ़िवादी दल के नेता थे, ने 27 जुलाई, 1857 ई० को हाउस ऑफ कामन्स में बोलते हुए सरकार के इस मत का खण्डन किया और कहा कि यह आन्दोलन एक "राष्ट्रीय विद्रोह" था न कि सिपाही विद्रोह भारतीय इतिहासकार अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक “The Great Rebellion" में इसे राष्ट्रीय विद्रोह कहा।


वी० डी० सावरकर ने 1909 ई० में लिखित अपनी पुस्तक “The Indian war of Independence, 1857 में इसे "सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम" की संज्ञा दी।


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय इतिहासकार लेखकों के मत -

  • एस० एन० सेन ने भारत सरकार के कहने पर “Eighteen Fifty Seven" नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में वह तर्क देते हैं कि यद्यपि इसे "राष्ट्रीय संग्राम" नहीं कहा जा सकता, परन्तु इसे सैनिक विद्रोह की संज्ञा देना भी गलत होगा, क्योंकि यह कहीं भी केवल सैनिकों तक सीमित नहीं रहा। अवध में यह एक जनान्दोलन बन गया था, जहाँ के देशभक्तों ने अपने राजा तथा राज्य के लिए संघर्ष किया। इसके बावजूद सेन अवध के विद्रोहियों को स्वतंत्रता का अग्रणी नहीं मानते क्योंकि वे राष्ट्रीय तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भावना से अनभिज्ञ थे।

  • भारत सरकार ने आर० सी० मजूमदार को 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया था परन्तु सरकारी समिति से अनबन होने के कारण उन्होंने यह कार्य करने से इंकार कर दिया तथा स्वतंत्र रूप से अपनी पुस्तक "The Sepoy Mutiny and the Rebellion of 1857, 1957 ई० में प्रकाशित की। उन्होंने इस पुस्तक में निष्कर्ष निकाला है कि "यह तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम, न तो यह प्रथमः न ही राष्ट्रीय तथा न ही स्वतंत्रता संग्राम था"। उनके विचार से इसे राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं कहा जा सकता।

  • शशि भूषण चौधरी ने 1957 ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक “Civil Rebellion in Indian Mutinies, 1857-1859" में 1857-58 ई० की घटनाओं को सैनिक व असैनिक विद्रोहों का सम्मिश्रण कहा है।
  • शशिभूषण चौधरी ने अपनी एक अन्य पुस्तक “Theories of the Indian Mutiny” में 1857 ई० के संघर्ष को स्वतंत्रता का संग्राम माना है।
  • 1957 ई० में पूरन चन्द्र जोशी द्वारा सम्पादित पुस्तक “Rebellion, 1857; A Symposium" में मार्क्सवादी दृष्टिकोण से 1857 ई० की घटनाओं का विश्लेषण किया गया है।


कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु -  


  1. बहादुरशाह के मुकदमें के जज मेजर हैरियट ने मुकदमें में पेश किए गए सारे कागजातों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला- "आरम्भ से ही षड्यंत्र सिपाहियों तक सीमित नहीं था और न उनसे यह शुरू ही हुआ था, बल्कि इसकी शाखायें राजमहलों और शहरों में फैली हुई थीं।"
  2. बहादुरशाह ने 25 अगस्त, 1857 ई० को प्रकाशित इस्तहार में कहा था “यह सबको विदित है कि इस युग में हिन्दुस्तान के लोग चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, सभी विधर्मी और विश्वासघातक अंग्रेजों के जुल्म से बर्बाद हो रहे हैं।"
  3. नाना साहब ने फ्रांस के सम्राट् को चार पत्र लिखे जिनमें बहादुरशाह द्वारा लगाए गए अभियोगों का समर्थन किया गया था।
  4. अवध की गद्दी पर बैठे नये नवाब बिरजिस कादिर ने भी एक घोषणा पत्र विद्रोह का समर्थन करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध जारी किया था।
  5. इस आन्दोलन के तीन प्रमुख नेताओं के इन तीन लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है। कि केवल सेना की शिकायतें ही 1857 की घटनाओं के लिए उत्तरदायी नहीं थी, बल्कि उच्च वर्ग में भी एक आम असन्तोष था ।
  6. कुल मिलाकर 1857 ई० का विद्रोह मध्य युगीन व्यवस्था से अपने को बचाने और अपनी खोई हुई मर्यादा प्राप्त करने का अन्तिम प्रयास था। राजा और जमींदार इस जमात के नेता थे। यह मोटे तौर पर एक राजनीतिक आन्दोलन था जिसका उद्देश्य भारत से विदेशी शासन को दूर करना था ।


1857 के विद्रोह के कारण -


1857 ई० के विद्रोह के कारणों पर राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सैनिक कारण विद्यमान थे, परन्तु सीधे तौर पर इसका मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता का अमानवीय शोषण था। प्रमुख कारणों का विश्लेषण निम्नलिखित है।


राजनीतिक कारण-

  • यद्यपि मुगल सम्राट् 1803 ई० से ब्रिटिश संरक्षण में रहने लगा था, लेकिन मान-मर्यादा सम्बन्धित उनके दावे स्वीकृत थे। वे गवर्नर-जनरल को- प्रिय पुत्र और वफादार नौकर" सम्बोधित करते थे।
  • ब्रिटिश गवर्नर जनरल एम्हर्स्ट ने बादशाह को यह साफ समझा दिया कि आपकी बादशाहत नाम मात्र की है और दरबार के ब्रिटिश रेजीडेण्ट ने नजर देते समय खड़े होने से इंकार किया।
  • इसके बाद के एक ब्रिटिश गवर्नर जनरल आकलैण्ड ने बादशाह को अपने दावे और अधिकार छोड़ने को कहा।
  • इसने बादशाह को नजर लेने, खिल्लत देने और दरबार करने से रोक दिया। दीवाने आम और दीवाने खास भी बन्द कर दिया गया।
  • डलहौजी ने सम्राट् को लाल किले से हटने के लिए कहा। बादशाह को उपाधि छोड़ देने और अपने उत्तराधिकारी नामजद करने का अधिकार भी छोड़ देने को कहा।
  • इन घटनाओं से सभी लोग मुगल बादशाह के अपमान से नाराज हुए और उनकी बादशाहत को मिटते हुए नहीं देखना चाहते थे।

  • अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर कुशासन के आधार पर फरवरी, 1856 ई० में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया जबकि अवध से अधिक अंग्रेजों का समर्थक तथा आज्ञाकारी राज्य कोई भी नहीं था। अवध को एक चीफ कमिश्नर का क्षेत्र बना दिया गया और हेनरी लारेन्स पहला चीफ कमिश्नर नियुक्त हुआ था।
  • डलहौजी ने उचित एवं अनुचित तरीकों से देशी राज्यों का अपहरण किया। गोद लेने का निषेध कर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बघाट, उदेपुर, झाँसी और नागपुर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
  • अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब की पेंशन भी बन्द कर दी।
  • कर्नाटक, सूरत और तंजौर की राजाओं के उपाधियों का अन्त कर दिया गया। 1
  • 854 ई० में डलहौजी ने जमीदारों एवं जागीरदारों की जाँच के लिए बम्बई में ईनाम कमीशन बैठाया। इस कमीशन ने 35 हजार जागीरों की जाँच की और लगभग 20 हजार जागीरें जब्त कर लीं।
  • कम्पनी की सेवा में भारतीयों को उच्च पदों पर नहीं रखा गया। 1860 ई० में सर सैय्यद अहमद ने घोषणा की कि विद्रोह का सबसे महत्वपूर्ण कारण भारतीयों को प्रशासकीय तन्त्र में प्रविष्ट न होने देना है। अंग्रेजों के प्रशासकीय परिवर्तनों ने यहाँ की प्रचलित व्यवस्था को झकझोर दिया।


आर्थिक कारण-

अंग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति ही विद्रोह का प्रमुख कारण थी। यह शोषण भूमि व्यवस्थाओं के नए-नए आविष्कार, करों में वृद्धि एवं भारतीय उद्योग धन्धों को नष्ट करके किया गया। सूखा, बाढ़ आदि के कारण फसलें न होने पर महाजनों से कर्ज लेकर लगान अदा करना होता था। कर्ज न अदा कर पाने पर सूदखोर जमीन पर कब्जा कर लेते थे। न्यायालयों एवं महाजनों के बीच गठबन्धन से ऐसी-ऐसी स्थिति पैदा हो गई जिससे भुक्तभोगी सत्ता उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी अवसर का स्वागत करने को तैयार थे। भारतीय अर्थव्यवस्था पर दूसरा आघात व्यापार पर नियंत्रण के रूप में देखा जा सकता है।


हमारे राष्ट्रीय नेताओं, जिनमें दादा भाई नौरोजी, आर० पी० दत्त, आर० सी० दत्त, गोपाल कृष्ण गोखले आदि प्रमुख थे, ने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की। दादाभाई नौरोजी ने 1861 ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक “Poverty and Un-British Rule in India" में धन निकासी (Drain Theory) का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।

नोट- कुछ स्त्रोतों में इसका प्रकाशन वर्ष 1901 दिया गया है।


सामाजिक धार्मिक कारण-

  • विलियम बैंटिक एवं डलहौजी के समय हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए कानून बनाये गये। जैसे-सती प्रथा, कन्या वध, बाल विवाह का निषेध एवं विधवा विवाह का समर्थन आदि।
  • पण्डित और मौलवियों ने जान-बूझकर अंग्रेजों के इन विचारों को चुनौती दी क्योंकि इन कार्यों से उनकी शक्ति एवं प्रभाव में कमी आई।
  • यूरोपीय अधिकारी भारतीयों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते थे, इस सम्बन्ध में तिलक ने लिखा है कि "कोई भी आत्म-सम्मान युक्त जाति इसे एक घण्टे के लिए बर्दाश्त नहीं करेगी।"
  • सामाजिक दृष्टि से भारतीयों के प्रति अंग्रेजों के व्यवहार एवं उनके विचार बहुत ही अपमानजनक हुआ करते थे। ये भारतीयों को काले अथवा सूअर की संज्ञा देते थे। होटलों और क्लबों में भारतीय प्रवेश नहीं कर सकते थे।

  • 1813 ई० में जब ईसाई मिशनरियों को भारत में आने की अनुमति दी गई, तब से उनका प्रचार कार्य बहुत बढ़ गया। अब शिक्षण संस्थाओं में भी ईसाई धर्म का प्रचार प्रारम्भ हुआ।
  • 1837 ई० के अकाल के समय अनेक व्यक्तियों को ईसाई बनाया गया।


  • 1845 ई० में एक नियम द्वारा कारागार में बन्दियों को अपने भोजन के बर्तन ले जाने पर रोक लगा दी गई तथा कैदियों का भोजन एक गैर ब्राह्मण द्वारा बनाया जाना प्रारम्भ किया गया। इससे कैदियों को लगा कि उन्हें ईसाई बनाया जा रहा है।
लोगों के मत
  • गोपीनाथ नामक एक बंगाली हिन्दू जो ईसाई बन चुका था लिखता है कि "जेल में कैदियों को प्रतिदिन एक ईसाई अध्यापक ईसाई धर्म की शिक्षा देता है।"
  • एक अंग्रेज अधिकारी मेजर एडवर्ड्स ने लिखा है कि "भारत पर हमारे अधिकार का अन्तिम उद्देश्य देश को ईसाई बनाना है। "
  • वीर सावरकर ने लिखा है कि "सैनिक एवं असैनिक उच्च अधिकारी राम एवं मुहम्मद को गालियाँ देते थे और सैनिकों को ईसाई बनने की प्रेरणा देते थे"। मन्दिरों, मस्जिदों तथा उनके पुरोहितों एवं इमामों या लोक उपकारी संस्थाओं की जमीन पर लगान लगाने से भी लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुँची।
  • अप्रैल, 1850 ई० में लेक्स लोकी कानून अर्थात् धार्मिक अयोग्यता अधिनियम द्वारा हिन्दू रीति-रिवाजों में परिवर्तन लाया गया। अब ईसाई बनने वाला व्यक्ति अपने पिता की सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। डलहौजी द्वारा गोद लेने की प्रथा का निषेध किया जाना हिन्दू धर्मशास्त्र के विरुद्ध था। अतः हिन्दू समाज में असंतोष फैल गया।


सैनिक कारण-

  • समाज के उच्च वर्ग के लोगों में जो असन्तोष व्याप्त था, वह बंगाल सेना के भारतीय सिपाहियों में भी व्याप्त था। बंगाल सेना के अधिकांश सैनिक ब्राह्मण या राजपूत थे। कार्नवालिस की आंग्लीकरण की नीति के कारण भारतीयों के लिए पद वृद्धि के दरवाजे बन्द हो गए। भारतीय सिपाहियों का वेतन भी बहुत कम था। उन्हें 7 रुपये महीने वेतन मिलता था। सेना में लगभग 2 लाख 38 हजार भारतीय सैनिक तथा 45 हजार यूरोपीय सैनिक थे। इस तरह भारतीय और यूरोपीय सैनिकों के बीच अनुपात लगभग 5:1 था।
  • गोरे अफसर भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। इस समय सेना कमान में बंगाल कमान सबसे बड़ी थी। यहाँ की मुख्य छावनियाँ बैरकपुर, बहरामपुर और दमदम थीं। बिहार में दानापुर, उत्तर प्रदेश में कानपुर और मेरठ, पश्चिम में सरहिन्द, लाहौर और पेशावर तथा मध्य भारत में ग्वालियर सबसे बड़ी छावनी थी।
  • भारतीय सिपाहियों का पहला विद्रोह 1764 ई० में तब हुआ, जब बक्सर में मीर कासिम के विरुद्ध लड़ते हुए मुनरो की सेना के एक बटालियन नवाब की सेना में मिल गई। इन पर मुकदमा चला और 24 सिपाहियों को तोप से उड़ा दिया गया।
सेना में प्रथम धार्मिक विद्रोह

  • सेना में प्रथम धार्मिक विरोध 1806 ई० में वेल्लौर में हुआ। यहाँ माथे पर तिलक लगाने और पगड़ी बाँधने पर रोक लगाई गई। इसकी जगह एक हैट लगाया जाना प्रारम्भ किया गया, जिस पर चमड़े का तुर्रा और पंख लगा होता था। यह तुर्रा, सूअर और गाय के चमड़े का होता था। इसको यहाँ किले में नजरबन्द टीपू के लड़कों ने चिंगारी दे दी और सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी सेना ने अन्ततः विद्रोह को कुचल दिया।
  • सेना में एक दूसरा धार्मिक विरोध 1824 ई० में हुआ, जब बैरकपुर की 47वीं रेजीमेण्ट ने बर्मा जाने से इंकार कर दिया क्योंकि हिन्दुओं के लिए समुद्र पार जाने का मतलब था उनका धर्म नष्ट होना। विरोध करने वाले सिपाहियों को फांसी दे दी गई और 47वीं रेजीमेण्ट भंग कर दिया गया। दुगना वेतन-भत्ते के विरोध में 1844 ई० में फीरोजपुर की 64वीं रेजीमेण्ट ने भी विद्रोह कर दिया। इनके नेताओं को सजा दी गई और रेजीमेण्ट भंग कर दिया गया।

  • 1854 ई० में डाकघर अधिनियम पारित होने पर सैनिकों की निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त कर दी गई। 1856 ई० में कैनिंग की सरकार ने सेना भर्ती अधिनियम पारित कर दिया जिसके अनुसार सेना के सभी सैनिकों को यह स्वीकार करना होता था कि जहाँ कहीं भी सरकार को आवश्यकता होगी, वे वहीं कार्य करेंगे। अतः अब वे समुद्र पार जाने से मना नहीं कर सकते। सैनिकों का कृषकों से अटूट सम्बन्ध था। बंगाल में अधिकतर सिपाही उत्तर प्रदेश से आते थे। इनमें अधिकतर ऊँची जाति के थे, जो प्राय: अनुशासन स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। चार्ल्स नेपियर को इन उच्च जातीय भाड़े के सैनिकों पर कोई विश्वास नहीं था।


तात्कालिक कारण -

  • 1856 ई० में सरकार ने पुरानी लोहे वाली बन्दूक ब्राउन बैस के स्थान पर न्यू इन्फील्ड रायफल के प्रयोग का निश्चय किया। इस रायफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुँह से काटना पड़ता था। जनवरी, 1857 ई० में बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगी है। इस घटना ने चिंगारी का कार्य किया और मंगल पाण्डे ने विद्रोह की शुरुआत कर दी। कालान्तर में पूँछ-ताछ ने सिद्ध कर दिया कि वास्तव में गाय और सूअर की चर्बी इसमें प्रयोग की गई थी।


विद्रोह का प्रारम्भ (विभिन्न चरण)


  • 23 जनवरी, 1857 ई० - दमदम(पश्चिम बंगाल) के सैनिकों ने कारतूसों के प्रयोग को अस्वीकार किया।
  • 26 फरवरी, 1857 ई० - को बहरामपुर के सैनिकों ने कारतूसों के प्रयोग को मना कर दिया और विद्रोह कर दिया।
  • 29 मार्च, 1857 ई० - 34वीं रेजीमेण्ट बैरकपुर (मुर्शिदाबाद के निकट) के मंगल पाण्डे ने अपने साथियों का विद्रोह के लिए आह्वान किया और इसने एडजुटेण्ट लेफ्टिनेंट बाग की हत्या कर दी और मेजर सार्जेण्ट ह्यूरसन को गोली मारी। मंगल पाण्डे को 8 अप्रैल को फांसी पर लटका दिया गया और रेजीमेण्ट भंग कर दी गई।

  • MANGAL PANDEY
    MANGAL PANDEY
  • 24 अप्रैल, 1857 ई० - मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के 99 सिपाहियों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया।
  • 9 मई, 1857 ई० - इनमें से 85 को बर्खास्त कर 10 वर्ष की सजा सुनायी गई।
  • 10 मई, 1857 ई० - मेरठ में तैनात पूरी भारतीय सेना ने विद्रोह कर दिया और अपने अधिकारियों पर गोली चलाई। अपने साथियों को मुक्त करवाकर ये लोग दिल्ली की ओर चल पड़े। मेरठ में तैनात जनरल हेविट के पास 2200 यूरोपीय सैनिक थे परन्तु, इस तूफान को रोकने का प्रयास नहीं किया गया।
  • मेरठ के विद्रोही 11 मई को दिल्ली पहुँचे और 12 मई, 1857 ई० को उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। लेफ्टीनेन्ट विलोबी जो दिल्ली में शस्त्रागार का कार्यवाहक था, ने कुछ प्रतिरोध किया परन्तु पराजित हुआ। विद्रोहियों ने बहादुर शाह द्वितीय को भारत का सम्राट् घोषित किया। बहादुर शाह द्वारा नेतृत्व स्वीकार करने के कारण ऐसे सब लोगों किया कब होने के लिए एक केन्द्र-बिन्दु मिल गया, जो ब्रिटिश राज्य को समाप्त करना चाहते थे।

दिल्ली में सरकारी काम-काज चलाने तथा सारे फौजी एवं गैर-फौजी मामलों का फैसला करने के लिए एक परिषद् गठित की गई। इसमें सेना तथा नागरिक प्रशासन के प्रतिनिधि थे। आरम्भ में इसका नेतृत्व मुगल शाहजादे कर रहे थे लेकिन 3 जुलाई, 1857 ई० को जब बख्त खाँ बरेली से आ गए तब उन्हें मुख्य नेता बना दिया गया। यहाँ की वास्तविक सत्ता सिपाहियों के हाथ में ही रही। 20 सितम्बर, 1857 ई० को दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया परन्तु इस संघर्ष में जान निकोलसन मारा गया।





बहादुर शाह जफर और हडसन

  • हडसन ने सम्राट् के दो पुत्रों मिर्जा मुगल एवं मिर्जा ख्वाजा सुल्तान और पोते मिर्जा अबू बक्र को दिल्ली के लाल किले के सामने गोली से मार डाला।
  • हडसन ने बहादुर शाह द्वितीय को हुमायूँ के मकबरे में गिरफ्तार कर लिया। उसे निर्वासित कर रंगून भेज दिया गया जहाँ 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। जब दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया तब बख्त खाँ लखनऊ चला आया और तब तक लड़ता रहा जब तक वह मारा नहीं गया। मिर्जा गालिब विद्रोह के साथ दिल्ली में ही थे।
  • इन्होंने विद्रोह को देखते हुए लिखा है कि "यहाँ मेरे सामने रक्त का एक विशाल सागर है, केवल खुदा ही जानता है कि मुझे और क्या देखना बचा है।" बहादुरशाह जफर के पतन में अंग्रेजों की कूटनीति के साथ-साथ जफर के ही एक निकट के रिश्तेदार का हाथ था जो अंग्रेजों को गुप्त रूप से सूचनायें दिया करता था। इसका नाम इलाही बख्श था।


विद्रोह का प्रसार


मेरठ से प्रारम्भ हुआ 1857 ई० का विद्रोह देश के अन्य भागों में भी विस्तारित होने लगा। आधुनिक उत्तर प्रदेश में जो उस समय उत्तर-पश्चिमी प्रान्त और अवध के नाम से जाना जाता था, विद्रोह की भावना सबसे भयंकर रूप में प्रकट हुई। अन्य प्रान्तों में भी, इसका प्रसार तेजी से हुआ परन्तु दक्षिण भारत के क्षेत्रों में यह विद्रोह ज्यादा फैल न सका। मद्रास तो बिल्कुल अछूता रहा। ज्यादातर जगहों पर सेना के साथ-साथ आम जनता ने भी हिस्सा लिया, परन्तु मुजफ्फरनगर और सहारनपुर में आम जनता ने हिस्सा नहीं लिया।


विद्रोह के प्रमुख केन्द्र निम्नलिखित थे -


लखनऊ-


अवध के नवाब वाजिद अली शाह को कुशासन के आधार पर गद्दी से उतारने और निर्वासित किए जाने से लोगों में असन्तोष था। कुछ ऐसे भी नेता थे जिन्होंने स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश की। ऐसे लोगों में फैजाबाद के मौलवी अहमद उल्ला शाह प्रमुख थे। इन्होंने लोगों को जेहाद के लिए उत्तेजित किया। इसी सन्दर्भ में नाना साहब और अजीमुल्ला लखनऊ आए। 30 मई, 1857 ई० को यहाँ सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। 4 जून को बेगम हजरत महल ने विद्रोह की कमान सम्भाली और अपने अल्प वयस्क पुत्र विरजिस कादिर को नवाब घोषित कर दिया। जून के अन्त तक अवध में शायद ही कोई ऐसा जिला बचा हो जो विद्रोहियों के हाथ में न रहा हो। जून, 1857 ई० के मध्य में रेजीडेन्सी का घेरा शुरू हुआ और 21 मार्च, 1858 ई० तक युद्ध जारी रहा। यहाँ के चीफ कमिश्नर लारेन्स रेजीडेन्सी की रक्षा करते हुए मार गए। बेगम हजरत महल हाथी पर चढ़कर अपनी सेना को युद्ध क्षेत्र में प्रोत्साहित करती रहीं। मार्च, 1858 ई० में कैम्पबेल ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त कर लखनऊ पर पुनः कब्जा कर लिया। हजरत महल ने आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया और नेपाल चली गईं। लखनऊ के हाथ से निकल जाने पर मौलवी अहमदशाह ने गुरिल्ला युद्ध शुरू किया। अन्त में वे मोहम्मदी गए तो पोवायाँ के राजा ने विश्वासघात करके उनको मार दिया।


कानपुर

  • कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व अन्तिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने किया। इनका वास्तविक नाम धोंदू पन्त था। कानपुर अंग्रेजों के हाथ से 5 जून, 1857 ई० को निकल गया। नाना साहब पेशवा घोषित हुए। कानपुर छावनी के कमाण्डर जनरल सर ह्यू ह्वीलर ने सुरक्षापूर्वक इलाहाबाद पहुँचाने के आश्वासन पर 27 जून, 1857 ई० को आत्म-समर्पण कर दिया। लेकिन इन्हें कानपुर में सत्ती-चौरा नामक स्थान पर मार डाला गया। बड़ी संख्या में अंग्रेज स्त्री और बच्चे बीबीगढ़ नामक मकान में कैद थे।
    NANA SAHEB
    NANA SAHEB

  • इन्हें नाना साहब के सैनिकों ने 15 जुलाई, 1857 ई० को मार डाला । नाना साहब को इस हत्याकाण्ड का उत्तरदायी ठहराया गया परन्तु उनका तर्क था कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी।
  • इस सम्बन्ध में एक अंग्रेज महिला हार्ट स्टेट की लिखित वैयक्तिक कथा से रोशनी पड़ती है। इस महिला के दामाद एक ऊँचे ब्रिटिश अफसर थे जो उन दिनों सत्तीचौरा विद्रोह के शिकार हुए थे।
  • नाना साहब ने इस महिला और 108 दूसरे लोगों को विद्रोहियों के हाथों से बचाया था। इस महिला ने नाना साहब के बारे में लिखा है-“इस व्यक्ति के बारे में चाहे जो कहें पर इस हत्याकाण्ड के लिए यह किसी भी प्रकार दोषी नहीं था।" हैवलाक के अधीन एक सेना इस घटना के दूसरे दिन कानपुर पहुँची।
  • 20 जुलाई को जनरल नील भी कानपुर पहुँच गया और कानपुर पर कब्जा कर लिया गया। 27 नवम्बर को ग्वालियर की विद्रोही सेना ने कानपुर को अंग्रेजों से फिर छीन लिया।
  • 16 दिसम्बर, 1857 ई० को कैम्पबेल ने कानपुर पर पूर्णरूप से अधिकार कर लिया। नाना साहब की ओर से लड़ने की मुख्य जिम्मेदारी तात्या टोपे की थी जिनका असली नाम रामचन्द्र पाण्डुरंग था। तात्या टोपे को सिन्धिया के सामन्त मानसिंह ने अप्रैल, 1859 ई० में धोखे से अंग्रेजों को सौंप दिया और इन्हें ग्वालियर में फाँसी दे दी गई।

झाँसी -

झाँसी में गंगाधर राव की विधवा लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को झाँसी की गद्दी न दिए जाने से अंग्रेजों से नाराज थीं। इसीलिए उन्होंने विद्रोह कर दिया। झाँसी में 5 जून, 1857 ई० को विद्रोह प्रारम्भ हुआ। रानी का दमन करने के लिए 23 मार्च, 1858 ई० को सर ह्यूरोज ने झाँसी को घेर लिया। रानी ने 8 दिनों तक युद्ध किया। कुछ देशद्रोहियों के कारण शत्रु सेना किले के अन्दर घुस आई।

LAXMI BAI




रानी शत्रु सेना के मध्य से निकलकर कालपी पहुँचीं। यहाँ भी वह ह्यूरोज की सेना से पराजित हुईं। कालपी से भागकर रानी ग्वालियर पहुँची। यहाँ सिन्धिया, अंग्रेजों का समर्थक था किन्तु उसकी सेना विद्रोहियों के साथ मिल गई जिसकी सहायता से रानी ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। यहाँ अंग्रेज सेनापति स्मिथ को भयभीत होकर पीछे भागना पड़ा तभी ह्यूरोज अपनी सेना के साथ आ पहुँचा। दोनों की सम्मिलित सेनाओं ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और यहीं मई, 1858 ई० में रानी वीरगति को प्राप्त हुई। इस तरह ग्वालियर पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।


बिहार - बिहार में शाहाबाद, पटना और गया जिले विद्रोह के प्रमुख केन्द्र थे। पटना डिवीजन में पीर अली जैसे मुस्लिम नेताओं ने विद्रोह को भड़काने में मदद की। बिहार के प्रमुख नेता थे-शाहाबाद जिले के जगदीशपुर के 80 वर्षीय बाबू कुँवर सिंह। ये इस आंदोलन के केंद्र बिंदु थे पटना और दानपुर में भी विद्रोह हुए लेकिन अंग्रेजों ने इसे दबा दिया। यहाँ के विद्रोही जगदीशपुर आ गए और कुँवर सिंह ने इनका नेतृत्व किया। इन्होंने सर्वप्रथम अपने जिले शाहाबाद को अंग्रेजी राज्य से मुक्त कराया। कुँवर सिंह जगदीशपुर से निकलकर आजमगढ़ जिले (उ० प्र०) में अतरौलिया नामक स्थान पर डेरा जमाया। अतरौलिया में मिलमैन के नेतृत्व में आयी अंग्रेज सेना को इन्होंने पराजित किया। इनके विद्रोह को समाप्त करने के लिए डेम्स के नेतृत्व में एक और सेना भेजी गई। आजमगढ़ के पास कुँवर सिंह ने मिलमैन व डेम्स की संयुक्त सेना को भी पराजित किया। अब कैनिंग ने मार्क के नेतृत्व में एक सेना भेजी। कुँवर सिंह ने इसे भी पराजित कर भगा दिया। इसी समय इनके बाँह में एक गोली लगी। इन्होंने अपने हाथ से अपनी बाँह काटकर गंगा को अर्पित कर दिया। 22 अप्रैल, 1858 ई० को कुँवर सिंह ने अपने रियासत जगदीशपुर में पुनः प्रवेश किया लेकिन 24 घण्टे बाद ही ली ग्रैण्ड के अधीन अंग्रेज और सिक्ख सेना जगदीशपुर पर पहुँच गई। कुँवर सिंह ने जगदीशपुर के बाहर इस सेना को भी पराजित कर दिया। युद्ध के 3 दिन बाद 26 अप्रैल, 1858 ई० को इनकी मृत्यु हो गई। 1857 ई० के विद्रोह में यही एक ऐसे वीर हैं जिन्होंने अंग्रेजों को कई बार पराजित किया और अन्त में इनकी मृत्यु अपनी मौत से हुई। कुँवर सिंह के मृत्यु के बाद इनके भाई अमर सिंह ने विद्रोह का नेतृत्व सम्भाला और दिसम्बर, 1858 ई० तक युद्ध जारी रखा। अन्त में विलियम टेलर और वेंसेंट आयर ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त कर दिया।


इलाहाबाद-

इलाहाबाद में जून के प्रारम्भ में एक विद्रोह हुआ। यहाँ विद्रोहियों की कमान मौलवी लियाकत अली ने सम्भाली। इन्हें जिले का सूबेदार घोषित कर दिया गया। अन्त में जनरल नील ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त किया। फैजाबाद-फैजाबाद का नेतृत्व मौलवी अहमद उल्ला ने किया। कैम्पबेल ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त किया।


बरेली-

बरेली में खान बहादुर खान ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और अपने आप को नवाब घोषित किया। सम्पूर्ण रुहेलखण्ड का यही प्रमुख नेता रहा। कैम्पबेल ने यहाँ के विद्रोह को भी समाप्त किया और खान बहादुर खान को फाँसी की सजा दी गई।


मन्दसौर-

मन्दसौर में मुगल घराने से सम्बन्धित शाहजादा फीरोज शाह ने स्वतंत्रता का झण्डा बुलन्द किया। अन्त में रंगून में इन्हें निर्वासित कर दिया गया और वहीं पर इनकी मृत्यु हो गई।


असम -

असम में पुरन्दर सिंह के पौत्र कन्दर्पेश्वर सिंह एवं मनीराम दत्ता ने विद्रोह किया। मनीराम दत्ता को कलकत्ता में पकड़कर फाँसी दे दी गई। उड़ीसा—-उड़ीसा में सम्भलपुर के राजकुमार सुरेन्द्र शाही और उज्जवल शाही विद्रोहियों के नेता बने। 1862 ई० में सुरेन्द्र शाही ने आत्म-समर्पण कर दिया। इन्हें देश से निकाल दिया गया।


कुल्लू-

कुल्लू की पहाड़ी में राजा प्रताप सिंह और उनके भाई वीर सिंह ने विद्रोह का नेतृत्व किया। इन दोनों को गिरफ्तार करके मृत्यु-दण्ड दे दिया गया।


राजस्थान — राजस्थान में कोटा ब्रिटिश विरोधियों का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ जयदयाल और उसके भाई हरदयाल ने विद्रोह का नेतृत्व किया। जयदयाल को तोप के मुँह में बाँधकर उड़ा दिया गया।


गोरखपुर-

गोरखपुर डिवीजन में गजाधर सिंह के नेतृत्व में विद्रोह हुआ जिसे बाद में दबा दिया गया।


मथुरा-

यहाँ के निकटवर्ती क्षेत्रों का नेतृत्व देवी सिंह ने किया। जबकि मेरठ के आस-पास के क्षेत्रों का नेतृत्व कदम सिंह ने किया।


उत्तराखण्ड - 
उत्तराखंड में इस क्रांति का नेतृत्व चंपावत के बिसुङ्ग गाँव में जन्मे कालू सिंह मेहरा ने किया था। 


विद्रोह की असफलता के पीछे क्या कारण थे ?

1857 ई० का विद्रोह अपने पूर्व के विद्रोहों से कहीं अधिक विस्तृत था। इस विद्रोह में सैनिक एवं असैनिक दोनों वर्गों ने हिस्सा लिया फिर भी यह विद्रोह असफल रहा। इसकी असफलता के निम्न कारण गिनाए जा सकते हैं -


(1) विद्रोह का सीमित स्वरूप-विद्रोह का सहसा तथा समय से पूर्व विस्फोट हो जाने के कारण यह अखिल भारतीय आन्दोलन का रूप धारण नहीं कर सका और भारत के कुछ ही भागों में सीमित रहा। अधिकांश क्षेत्रों में शान्ति बनी रही। बंगाल, पंजाब कश्मीर, उड़ीसा एवं दक्षिण भारत में यह क्रान्ति फैल नहीं पाई थी। अतः अपने सीमित स्वरूप के कारण यह असफल रही।


(2) देशी नरेशों एवं सामन्तों की गद्दारी—पंजाब के सिक्ख सरदार, कश्मीर के गुलाब सिंह, ग्वालियर के सिन्धिया और उनके मंत्री दिनकर राव, हैदराबाद के सालार जंग, भोपाल की बेगम और नेपाल के एक मंत्री सर जंगबहादुर की स्वामिभक्ति अंग्रेजों के साथ थी। इलाही बख्श की गद्दारी भी महत्वपूर्ण थी।


कैनिंग ने टिप्पणी की थी "इन शासकों एवं सरदारों ने तरंग रोधकों का कार्य किया अन्यथा इसने हमें एक झोके में ही बहा दिया होता।"


(3) योग्य नेतृत्व का अभाव—- 1857 ई० के विद्रोह में मजबूत केन्द्रीय संगठन को अभाव था। विभिन्न भागों के विद्रोहियों में कोई तालमेल नहीं था। इनमें वीरता एवं बहादुरी की भावना थी किन्तु योग्य सेनापति के गुण नहीं थे। उदाहरणार्थ, बहादुरशाह ने दिल्ली आने वाली अंग्रेजी सेना को बाहर ही रोकने का प्रयास नहीं किया।


(4) संगठन का अभाव—1857 ई० का विद्रोह बिना किसी पूर्व निश्चित योजना के ही प्रारम्भ हो गया था। पहले विद्रोह की तिथि 13 मई निश्चित की गई थी परन्तु विद्रोह 10 मई को ही हो गया।


(5) निश्चित उद्देश्य का अभाव -1857 ई० के विद्रोह में यह कहना कठिन है कि सभी विद्रोही राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर लड़ रहे थे। भारतीय सैनिकों ने वाले कारतूसों के कारण विद्रोह किया। इन्हें अन्तिम लक्ष्य का पता नहीं था। इसी तरह। अन्य विद्रोहियों ने भी विद्रोह किया। इन विद्रोहियों में आपस में कोई सहयोग भी नह


था।


(6) सीमित साधन-अंग्रेजों की तुलना में विद्रोहियों के साधन सीमित थे। जहाँ भारतीय सैनिक भाले एवं तलवार से युद्ध कर रहे थे वहीं अंग्रेज सैनिक नवीन राइफल का प्रयोग कर रहे थे। सुन्देलखण्ड में बानपुर के राजा मदन सिंह ने यूरोपीय ढंग पर तोपें ढालने का कारखाना स्थापित किया, जिसमें बनी हुई तोपें अंग्रेजों द्वारा प्रयोग की गई। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने रेल, तार, डाक एवं सामुद्रिक मार्ग का लाभ उठाकर आवश्यकतानुसार सेना एक जगह से दूसरी जगह विद्रोहियों के दमन के लिए भेजी


(7) जन समर्थन का अभाव


(i) शिक्षित वर्ग की उदासीनता इस विद्रोह में शिक्षित भारतीयों ने न तो भाग लिया और न ही उसका समर्थन किया। यहाँ तक कि व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बम्बई में अंग्रेजों की सफलता के लिए प्रार्थना की।


(ii) कृषक वर्ग की उपेक्षा-1857 ई० के विद्रोहियों ने एक बहुत बड़ी भूल की। इन्होंने अपने आन्दोलन को राजाओं एवं जमींदारों का आन्दोलन बना रखा था। अतः यह जन साधारण का आन्दोलन नहीं बन सका ।


(8) अंग्रेजों के अनुकूल परिस्थितियाँ एवं कुशल नेतृत्व — इस समय परिस्थितियाँ अंग्रेजों के अनुकूल थीं। क्रीमिया तथा चीन की लड़ाइयों का अन्त हो चुका था तथा विद्रोहियों को सहायता देने वाला कोई विदेशी शासक भी नहीं था। दूसरी तरफ अंग्रेजी सरकार को नील, आउट्रम, लारेन्स, हैवलाक, ह्यूरोज, निकोलसन, कैम्पबेल जैसे सेनापतियों की सेवायें प्राप्त हुईं, जिन्हें कई युद्धों का अनुभव था।


विद्रोह के पीछे कोई रचनात्मक विचार नहीं था, कोई स्थिर संगठन नहीं था और न ही कोई कोष था, अतः विद्रोह विफल रहा।


विद्रोह का महत्व

1857 ई. के विद्रोह की विफलता ने भारतीयों को यह दिखा दिया कि सिर्फ सेना और शक्ति के बल पर ही अंग्रेजों से मुक्ति नहीं मिल सकती बल्कि सभी वर्गों का सहयोग, समर्थन और राष्ट्रीय भावना आवश्यक है। 1857 ई० के विद्रोह से भारतीयों में राष्ट्रीय भावना का बीजारोपण हुआ। इस विद्रोह ने उन्हें एकता तथा संगठन का पाठ पढ़ाया और राष्ट्रीय जीवन में यह उनकी प्रेरणा का स्रोत बना। विद्रोह के पश्चात् ब्रिटिश सरकार का ध्यान देश की आन्तरिक दशा को सुधारने की ओर उन्मुख हुआ। भारतीय इतिहास में यहीं से संवैधानिक विकास का सूत्रपात हुआ और धीरे-धीरे भारतीयों को अपने देश में शासन में भाग लेने का अवसर दिया जाने लगा। इस तरह भारत में प्रजातान्त्रिक शासन का बीजारोपण हुआ।


विद्रोह का परिणाम


यद्यपि 1857 ई० का विद्रोह असफल रहा लेकिन इसका तात्कालिक और दूरगामी परिणाम अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इस विद्रोह के बाद मुगल साम्राज्य सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया। इस विद्रोह का एक अन्य परिणाम था-महारानी विक्टोरिया का घोषणा-पत्र । विक्टोरिया का घोषणा-पत्र लार्ड कैनिंग ने । नवम्बर, 1858 ई० को इलाहाबाद के मिण्टो पार्क में अपना दरबार लगाया और यहीं महारानी विक्टोरिया का घोषणा-पत्र पढ़ा।


इसकी महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित थीं—


(1) भारतीय शासन की बागडोर कम्पनी के हाथों से निकलकर क्राउन के हाथों में चली गई। गवर्नर जनरल को अब वायसराय कहा जाने लगा।


(2) इस घोषणा के द्वारा अब सरकार (ब्रिटिश) भारतीय मामलों के लिए सीधे उत्तरदायी हो गई।


(3) इस घोषणा ने स्पष्ट कर दिया कि भविष्य में कोई भी राज्य अंग्रेजी राज्य में नहीं मिलाया जायेगा।

सरकार ने डलहौजी की हड़पने की नीति त्याग दी और भारतीय नरेशों को गोद लेने का अधिकार वापस कर दिया।


(4) भारतीय रजवाड़ों के साथ यथास्थिति बनाये रखने की बात कही गयी।


(5) घोषणा-पत्र में कहा गया कि सरकार अब भारतीयों के धार्मिक एवं सामाजिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी।


(6) भारतीय सैनिकों की संख्या और यूरोपीय सैनिकों की संख्या का अनुपात विद्रोह के पूर्व 5: 1 था। अब इसे घटाकर 2: 1 कर दिया गया। विद्रोह के पूर्व भारतीय सैनिकों की संख्या 2 लाख 38 हजार थी जो अब घटाकर 1 लाख 40 हजार कर दी गई। तोपखाना पूर्णतया यूरोपीय सैनिकों के हाथ में रखा गया। विद्रोह के पहले सेना में बंगाल एवं अवध के सैनिक सर्वाधिक होते थे परन्तु विद्रोह के पश्चात् उनकी संख्या घटा दी गई एवं उनकी जगह पंजाबी एवं गोरखों की सैनिकों की संख्या में बढ़ोत्तरी की गई।


(7) भारत की देखभाल के लिए एक नए अधिकारी भारतीय राज्य सचिव (Secretary States of India) की नियुक्ति की गई तथा इसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक मंत्रणा परिषद बनाई गई। इनमें 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा एवं 7 की कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स द्वारा होनी थी।


1857 के विद्रोह में हिन्दुओं और मुसलमानों ने समान रूप से भाग लिया। इसका नेता बहादुरशाह जफर मुसलमान ही था। अंग्रेज क्रान्ति के बाद हिन्दुओं का पक्ष लेने लगे और मुसलमानों से घृणा करने लगे। बाद में उन्होंने मुस्लिम साम्प्रदायिकता का सहारा लिया। तथा दोनों सम्प्रदायों को एक-दूसरे से लड़ाकर राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करने का प्रयास किया। इसकी अन्तिम परिणति भारत के विभाजन के रूप में सामने आई ।


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