इतिहास तीन शब्दों इति + ह + आस से मिलकर बना है जिसका अर्थ
है - ऐसा निश्चित रूप से हुआ।
इस प्रकार इतिहास अतीत को जानने का एक साधन है
किसी समाज या राष्ट्र के इतिहास के अध्ययन के द्वारा हम उस समाज या राष्ट्र के
अतीत को जान सकते हैं।अतीत से तात्पर्य उस राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता से है।
प्रत्येक राष्ट्र की अस्मिता की पहचान उसकी संस्कृति और सभ्यता से की जाती है।
संस्कृति के अन्तर्गत मानव के समस्त क्रिया-कलाप आते हैं जबकि सभ्यता के अन्तर्गत
उसके भौतिक पहलुओं पर विशेष जोर दिया जाता है।
प्राचीन काल में भारत के विशाल उपमहाद्वीप को
भारतवर्ष, अर्थात्
भरतों की भूमि के नाम से जाना जाता था।
विष्णुपुराण के अनुसार - "समुद्र के उत्तर में
तथा हिमालय के दक्षिण में जो स्थित है, वह भारत देश है तथा
वहां की संतति(progeny) भारतीय है।"
मान्यताओं के अनुसार इस देश का भारत नामकरण
ऋग्वैदिक काल के प्रमुख 'जन'
'भरत' के नाम पर किया गया लगता है। भारत देश
जम्बू द्वीप का दक्षिणी भाग था।
सिन्धु
द्वारा सिंचित प्रदेश को इण्डिया नाम सबसे पहले हख़ामनी ईरानियों द्वारा दिया गया । पारसियों के पवित्र ग्रंथ 'जिन्द अवेस्ता' में सरस्वती
की सात नदियों के क्षेत्र का उल्लेख करते हुए "सप्तसैन्धव' शब्द का प्रयोग किया गया है। यूनानियों ने बाद में यह शब्द सिन्धु
नदी को 'इन्डोस'
के नाम से पुकारा।
ईरानियों या पारसियनों की पुस्तक 'मेहरेयास्त' और 'यास्ना' में सप्तसिन्धु के स्थान पर 'हप्त हिन्दु' का उल्लेख मिलता है। इससे पता चलता है कि ईरानी 'स' के स्थान
पर 'ह' का प्रयोग करते
थे। इन्हीं पुस्तकों में बाद में हिन्दु के स्थान पर हिन्दू शब्द का प्रयोग मिलता
है। जिससे पता चलता है कि इस शब्द का विस्तार इण्डस के क्षेत्र के आगे के प्रदेश
तक था।
प्रसिद्ध
यूनानी इतिहासकार 'हेरोडोटस' ने इण्डोस शब्द का प्रयोग परसियन
साम्राज्य की 'क्षत्रपी' के लिए किया था। लेकिन बाद में यूनान और रोम दोनों के लेखकों द्वारा इस
शब्द को समूचे देश के लिए लागू कर दिया गया।
ईसा
की प्रथम शताब्दी में चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश होने पर चीनियों ने भारत के
लिए तिएन-चू अथवा चुआंतू शब्द का प्रयोग किया है। लेकिन हवेन्सांग के बाद
वहाँ पर 'यिन- तू' शब्द का चलन हो गया। फारसी में हिन्दू, यूनानी में इंडोस, हिब्रू में
होड्डू, लैटिन में इंडस और चीनी में तिएन-चू, ये सभी शब्द सिंधु शब्द के बिगड़े हुए रूप हैं।
इस
प्रकार भरत के वंशज भारतीय अथवा 'हिन्दुओं' के नाम से जाने जाने लगे। इत्सिंग
कहता है कि "हिन्दू नाम का प्रयोग केवल उत्तरी
जनजातियों द्वारा किया जाता है और स्वयं भारत के लोग इसे नहीं जानते।"
एक प्रदेश के रूप में भारत का प्रथम सुनिश्चित उल्लेख छठीं पांचवी
शताब्दी ईसापूर्व की पाणिनि की लिखित पुस्तक 'अष्टाध्यायी' में मिलता है। तब भारत नाम का जनपद कम्बोज से मगध तक विनिर्दिष्ट(specified) 22 जनपदों में से एक था। बाद में बौद्ध साहित्य में प्राचीन सप्तसिन्धु
अनुरूप सात भारत प्रदेशों का उल्लेख है।
इत्सिंग
ने भारत के लिए आर्य देश और ब्रह्मराष्ट्र जैसे शब्दों का प्रयोग किया। पतंजलि
के समय में (150 ई० पू०)
'आर्यावर्त' शब्द का उल्लेख मिल है। पुराणों
में भारतवर्ष शब्द की परिभाषा इस प्रकार की गई है- "वह
देश जो समुद्र (अर्थात हिन्द महासागर) के उत्तर में और बर्फीले पर्वतों (हिमालय)
के दक्षिण में स्थित है, जहां पर सात मुख्य पर्वत
श्रृंखलायें हैं, अर्थात् महेन्द्र, मलय,
सहि, सुक्तिमतरिक्षि (गोण्डवाना के पहाड़)
विन्ध्य और परियात्र (अरावली तक पश्चिमी बिन्ध्य पर्वत श्रेणियाँ), जहां भरत के वंशज रहते हैं और जिसके पूर्व में किरात और पश्चिम में यवन
(आयोनियन अथवा यूनानी) रहते हैं और इसके अपने लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र (अर्थात् हिन्दू) हैं।"
परन्तु
भारतवर्ष नाम इण्डिया शब्द की तरह केवल एक भौगोलिक अभिव्यक्ति नहीं है।
इसका एक ऐतिहासिक महत्व है, जो
ऋग्वेद के भरतों के देश का संकेत देता है। हिन्दुओं की नित्यप्रति की साधारण
प्रार्थना में एक हिन्दू से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी मातृभूमि की छवि का
स्मरण उन सात पवित्र नदियों गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा,
सिन्धु और कावेरी के देश के रूप में करे, जिसके
अन्तर्गत उसका सारा क्षेत्र शामिल है।
एक अन्य प्रार्थना में इस भूमि का स्मरण सात
पुरियों (पवित्र नगरों) अयोध्या मथुरा, माया (आधुनिक हरिद्वार), काशी,
कॉच्ची (कांजीवरम्), अवन्तिका (उज्जैन),
द्वारावती (द्वारका) के देश के रूप में किया गया है। ये नगर भारत के
महत्वपूर्ण क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते है। शंकराचार्य ने देश की एकता को
प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से देश के चार छोरों पर चार मठ स्थापित किये थे,
उत्तर में (हिमालय में बद्री-केदार के निकट) ज्योतिर्मठ, पश्चिम में द्वारिका में शारदामठ, पूर्व में पुरी
में गोवर्धनमठ और मैसूर में श्रृंगेरीमठ इस प्रकार हिन्दू संस्कृति में सम्प्रदाय
अथवा पन्च राष्ट्रीयता के सहायक हैं, विरोधी नहीं भागवत
पुराण और मनुस्मृति जैसे धार्मिक ग्रन्थों देशभक्ति भावना से ओत-प्रोत अंश पाये
जाते हैं, जिसमें को देवताओं `द्वारा
निर्मित भूमि बताया गया है और कहा गया है कि देवता भी पृथ्वी के इस स्वर्ग में
जन्म लेने की इच्छा रखते हैं।
इतिहास का अध्ययन लोगों, समाजों और राष्ट्रों को समझने में
सहायता करता है और अन्ततः सम्पूर्ण मानवता को पहचान और अपनत्व का भाव मिलता है।
इतिहास का अध्ययन लोगों को उनकी संस्कृति, धर्म और समाज
व्यवस्था को जानने समझने तथा उनका आदर करने में सहायता करता है। इतिहास का अध्ययन हमें
अपने अतीत से वर्तमान और भविष्य के सबक लेना सिखाता है।
यह हमें उन गलतियों को दोहराने से रोकता है जिनके
कारण हमें अतीत में अनेक मानवनिर्मित विपत्तियों और घोर आपदाओं को झेलना पड़ा।
इतिहास हमें यह भी बताता है कि उन बुराइयों को कैसे नजरंदाज करें जिन्होंने समाज
में समस्यायें खड़ी कर दी थी और उन बातों का कैसे अनुसरण करें जिनसे समरसता, शांति और समृद्धि को बढ़ावा मिलता
है। इतिहास लोगों को उनकी पहचान देता है। अतीत के अध्ययन का यह अर्थ नहीं कि
अध्ययनकर्ता अतीत में जीता है, बल्कि वह अतीत के साथ जीना
सीख लेता है इतिहास कोई ऐसी चीज नहीं है कि जिसे हम स्वीकार कर सके या जिसका हम
परित्याग कर सकें।
इतिहास लेखन की भारतीय परम्परा
बहुत से विदेशी विद्वानों का मत था कि भारतीयों
में इतिहास लेखन की कोई समझ नहीं थी और इतिहास के नाम पर जो कुछ लिखा गया था वह
बिना अर्थ वाली कहानी से अधिक कुछ नहीं है। उनका यह निर्णय सतही जान पड़ता है। प्राचीन
भारत में इतिहास के ज्ञान को बहुत उच्च स्थान दिया जाता था, उसे वेद के समान पवित्र माना जाता
था। अथर्ववेद, ब्राह्मणों और उपनिषदों में इतिहास पुराण को
ज्ञान की एक शाखा के रूप में शामिल किया गया है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में
राजा को यह सलाह दी कि उसे प्रतिदिन अपना कुछ समय इतिहास का वर्णन सुनने में लगाना
चाहिए। पुराणों के अनुसार इतिहास के विषय हैं- सर्ग (सृष्टि की उत्पत्ति), प्रतिसर्ग (सृष्टि का प्रत्यावर्तन एवं प्रतिविकास), मनवन्तर (समय की आवृत्ति), वंश (राजाओं और ऋषियों की
वंशावली ) और वंशानुचरित (कुछ चुने हुए पात्रों की जीवनियां )
भारत का पौराणिक साहित्य बड़ा विशाल है। 18 मुख्य पुराण हैं, 18 उपपुराण हैं और अनेक अन्य ग्रन्थ है, सभी पुराणों
में राजवशों का वर्णन अर्जुन के पीत्र परीक्षित के शासनकाल को आधारभूत सन्दर्भ
बिन्दु मानते हुए किया गया है। उससे पहले के सभी राजवंशों और राजाओं का उल्लेख
भूतकाल में किया गया है और उत्तरवर्ती राजाओं और राजवंशों का उपयोग भविष्यकाल में
किया गया है। सम्भवतः इसका कारण यह है कि परीक्षित के राज्यारोहण को कलियुग का
प्रारम्भ माना जाता है। बहुत से विद्वानों का विचार है कि यह इस तथ्य की ओर भी
संकेत करता है कि शायद पुराणों के लिखे जाने का काल परीक्षित के शासन काल में पूरा
हुआ था।
पुराणों के सन्दर्भ में यह स्मरण रहे कि प्राचीन भारत में इतिहास को अतीत के प्रकाश में वर्तमान और भविष्य को आलोकित करने का साधन समझा जाता था इतिहास का प्रायोजन यह समझना और बताना था कि व्यक्तियों का परिवार के प्रति परिवारों का अपने वंश के प्रति वंशों का गांवों के प्रति, गांवों का जनपद व राष्ट्र के प्रति और अन्ततः समूची मानवता के प्रति क्या कर्तव्य है और उनमें त्याग और बलिदान की भावना कैसे उत्पन्न की जाये इतिहास को राजाओं, राजवंशों के नामों और उनकी उपलब्धियों आदि का विशाल संग्रह नहीं समझा जाता था। इसे सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना जाग्रत करने का एक सशक्त साधन माना जाता था। शायद इसलिए वर्षाऋतु में और त्योहारों एवं पर्वो के अवसर पर प्रत्येक गांव और नगर में पुराणों का गायन और श्रवण वार्षिक समारोहों का एक आवश्यक अंग था।
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